पुलिस के खास मददगार (मुखबीर) के लिए नहीं हो पा रहा, पुलिस के पास पैसा

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पुलिस फर्द में पहले नाम (मुखबीर)के लिए नहीं है पुलिस के पास पैसे

गोरखपुर। यूपी समेत पूरे देश मे लगभग 90 % पुलिस की फर्द में मुखबिर शब्द का जिक्र होता रहा है।पुलिस विभाग में इन मुखबिर का चलन शुरूआत के दौर से ही मौजूद रहा है। मुखबिरों का बहुत लंबा नेटवर्क होता है, लेकिन मौजूदा समय मे दिलचस्प बात यह है कि थानों की पुलिस महज सात हजार रूपए सालाना रकम से मुखबिरों के पूरे नेटवर्क को चला रही है।
यही वजह है कि इन मुखबिरों का नेटवर्क अब धीरे-धीरे काफी कमजोर हो जा रहा है. जानकारों की माने तो मुखबिरों के लिए मिलने वाला यह गुप्त धन उंट के मुंह में जीरा जिनता है. यही वजह है कि अपराधियों पर नकेल कसने में मुखबिर मदद के लिए आगे नहीं आते है. यह रकम पूरी तरह से एसएसपी की कृपा पर निर्भर करती है. इस रकम को ज्यादातर क्राइमबांच में ही खर्च किया जाता है.
दरअसल, बदमाशों का नम्बर मुहैया कराने से लेकर उनकी सीसीटीवी के सामने आए फुटेज के हिसाब से पहचान कराने तक में मुखबिरों की भूमिका इंकार नहीं किया जा सकता है. यही वजह है कि क्राइम ब्रांच हो या फिर थानेदार-चौकी इंचार्ज, उन्हें अपने इलाके को शांत रखने के लिए ज्यादा से ज्यादा मुखबिर पालना ही पड़ता है. कई बड़ी गिरफ्तारियां या मुठभेड़ इन्हीं मुखबिरों की सटीक संदेशों के आधार पर हुई हैं. हालांकि जब से मोबाइल सर्विलास, सीसीटीवी ने दखल दी है तब से पुलिस की कुछ हद तक निर्भरता कम हुई, लेकिन बाद में यह लगा कि मोबाइल सर्विलांस या फिर सीसीटीवी के बाद भी मुखबिर का अहम रोल है. सबसे ज्यादा बदमाशों की पहचान या उनके लोकेशन पर पता लगाने में महत्वपूर्ण भूमिका है. लिहाजा पुलिस विभाग मामूली रकम खर्च कर इन मुखबिरों को जिंदा किए हुए हैं.
अगर सूत्रों की माने तो गुप्त धन को गुप्त कामों में खर्च के लिए होते हैं. उस रकम की कोई आडिट नहीं होती है. यह रकम प्रत्येक जिलों को वहां की जरूरत के हिसाब से जारी होती है.

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