हम अक्सर कहते हैं कि स्त्रियाँ संवेदनशील होती हैं, छोटी-सी बात पर आँसू बहा देती हैं। यह सच है, लेकिन अधूरा सच है।
पूरा सच यह है कि पुरुष भी रोते हैं,
फर्क बस इतना है कि उनके आँसू आँखों से नहीं, बल्कि आत्मा की गहराइयों से बहते हैं।
समाज ने पुरुष के चेहरे पर मज़बूती की परत चढ़ा दी है। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे हर परिस्थिति में मज़बूत दिखें, कभी न टूटें, कभी न थकें।
लेकिन क्या पुरुष पत्थर से बने हैं? नहीं,
वह भी तो इंसान हैं। उनके दिल में भी वही भावनाएँ, वही पीड़ा और वही कोमलता है जो किसी स्त्री में होती है।
स्त्रियाँ अपनी पीड़ा को आँसुओं में बहा देती हैं, लेकिन पुरुष अपने दर्द को मौन में छुपा लेते हैं। उनका यही मौन, उनका सबसे बड़ा रोना होता है। वे कमज़ोर नहीं होते, बल्कि समाज और परिवार के लिए अपने दुःख को निगल जाते हैं।
एक पुरुष अपनी मुस्कान के पीछे अनगिनत चिंताओं को छुपा लेते हैं। उनकी थकान कोई नहीं पढ़ पाता, उनकी रातों की बेचैनी कोई नहीं जान पाता।फिर भी वह परिवार का सहारा बनकर, समाज का स्तंभ बनकर खड़े रहते हैं।
भगवान ने पुरुष और स्त्री दोनों को समान संवेदनाएँ दी हैं। दोनों को आँसू, सपने और दिल दिया है।
इसलिए यह मानना कि पुरुष केवल कठोरता का प्रतीक हैं,एक भूल है।
असल में पुरुष और स्त्री एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं।
पुरुष अपने कर्मों से प्रेम जताते हैं। वे शब्दों से नहीं, बल्कि त्याग और ज़िम्मेदारी से रिश्ते निभाते हैं। उनका प्रेम मौन है, लेकिन गहरा और सच्चा है।
जो पुरुष परिवार और समाज के लिए स्वयं को न्यौछावर कर देते है, उनकी पहचान तालियों या शोहरत से नहीं होती, बल्कि उनके त्याग और संवेदनशीलता से होती है।
पुरुष पत्थर नहीं, इंसान हैं। वे भी टूटते हैं, वे भी रोते हैं, वे भी स्नेह चाहते हैं।
उनकी भावनाओं का सम्मान करना ही सच्चे समाज की पहचान है।
पुरुष की पहचान केवल उनकी मज़बूती नहीं, बल्कि उनकी संवेदनशीलता और त्याग है।