भारतीय चुनाव आयोग (Election Commission of India – ECI) एक संवैधानिक निकाय है। यह भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए जिम्मेदार है। मगर, पिछले कुछ वर्षों से चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर बार-बार सवाल उठ रहे हैं। जिसके चलते लोकतंत्र की विश्वसनीयता पर भी संकट ग़हराता जा रहा है। भारतीय चुनाव आयोग लोकतंत्र की रक्षा का एक मजबूत स्तंभ है। इसकी निष्पक्षता और पारदर्शिता बनाए रखना बेहद ज़रूरी है, ताकि भारत में स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव का कार्य निरंतर चलता रहे। मगर, यूपी विधानसभा चुनाव 2017, हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में काफी आरोप लगे थे। लोकसभा चुनाव 2024 में मतदान के बाद वोट बढ़ने के आरोपों का मुद्दा काफी गरमाया, लेकिन रामपुर विधानसभा उप चुनाव, यूपी की नौ विधानसभा सीट के उप चुनाव और मिल्कीपुर विधानसभा उप चुनाव के वायरल वीडियो ने विश्वनीयता पर काफी सवाल खड़े किए हैं। इसकी जांच में सत्यता मिलने पर कड़े एक्शन की जरूरत दिखाई दे रही है। सपा प्रमुख एवं पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मिल्कीपुर विधानसभा सीट पर उप चुनाव के मतदान के बाद सीधे गंभीर आरोप लगाए हैं, तो वहीं सपाइयों ने सफेद कपड़े के साथ विरोध जताया है। इससे गंभीर सवाल खड़े होते हैं।चुनाव आयोग देश में लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा और राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति के चुनावों को संचालित करता है। देश में भारतीय चुनाव आयोग की स्थापना 25 जनवरी 1950 को की गई थी। इसके बारे में भारतीय संविधान के अनुच्छेद (Article) 324 में विस्तार से बताया गया है। शुरुआत में चुनाव आयोग एक एकल सदस्यीय निकाय था। मगर, 1993 से यह तीन सदस्यीय निकाय बन गया। इसमें मुख्य चुनाव आयुक्त (Chief Election Commissioner – CEC) और दो अन्य चुनाव आयुक्त (Election Commissioners – ECs) हालांकि, इनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। मुख्य चुनाव आयुक्त या चुनाव आयुक्त का कार्यकाल 6 वर्ष या 65 वर्ष की आयु (जो पहले हो) तक होता है। मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने की प्रक्रिया भी सुप्रीम कोर्ट के जज की तरह होती है।
भारतीय चुनाव आयोग के कार्य एवं शक्तियाँ
देश में भारतीय चुनाव आयोग लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा और राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति के चुनाव कराता है। निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने को आचार संहिता (Model Code of Conduct) लागू होती है।इसके साथ ही दलों को मान्यता देना और उन्हें राष्ट्रीय या राज्य स्तर की पार्टी का दर्जा देता है। धनबल, बाहुबल, बूथ कैप्चरिंग और मतदाताओं को डराने-धमकाने जैसी गतिविधि रोकने की जिम्मेदारी है। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) और वोटर वेरिफिएबल पेपर ऑडिट ट्रेल (VVPAT) का उपयोग और निगरानी, उम्मीदवारों द्वारा किए जाने वाले खर्च की सीमा तय कर उल्लंघन पर कार्रवाई आदि करना है। सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग को रोकने के साथ ही निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करना भी है। इसलिए संविधान चुनाव आयोग को स्वतंत्रता और निष्पक्षता की गारंटी देता है। मगर, इसके बाद भी राजनीतिक हस्तक्षेप, पारदर्शिता की कमी और निष्पक्षता पर सवाल जैसी चुनौतियां बनी हुई हैं।
चुनाव प्रणाली में क्रांतिकारी सुधार को याद किए जाते टीएन शेषन
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन (तरुणेन्द्रनाथ शेषन) भारत के 10वें मुख्य चुनाव आयुक्त थे। उन्होंने 12 दिसंबर 1990 से 11 दिसंबर 1996 तक जिम्मेदारी निभाई। उन्हें भारतीय चुनाव प्रणाली में क्रांतिकारी सुधार लाने के लिए जाना जाता है। उन्होंने चुनाव आयोग को एक सशक्त और स्वतंत्र संस्था के रूप में स्थापित कर निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने को काफी सुधार किए। उन्होंने पहली बार चुनाव आचार संहिता को सख्ती से लागू कराकर चुनाव में धनबल और बाहुबल पर रोक लगाई। चुनावी धांधली, भ्रष्टाचार, बूथ कैप्चरिंग, और अनैतिक प्रथाओं पर कठोर कार्रवाई की नजीर पेश की। उनके कार्यकाल में पहली बार मतदाता पहचान पत्र (Voter ID) अनिवार्य करने की प्रक्रिया शुरू की गई। राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के खर्चों पर सख्त निगरानी रखकर चुनावी पारदर्शिता बढ़ाई गई। उनके कड़े चुनाव सुधारों के कारण भारतीय राजनीति में उन्हें एक दृढ़, अनुशासनप्रिय और निडर प्रशासक के रूप में जाना जाता है। उनके प्रयासों ने भारतीय चुनाव आयोग को एक प्रभावशाली संस्था बनाया। भविष्य के चुनाव आयुक्तों के लिए भी एक उच्च मानदंड स्थापित किया। इसलिए उन्हें उत्कृष्ट कार्यों के लिए रमन मैग्सेसे अवार्ड (1996) से सम्मानित किया गया।
सियासी दलों की चुनाव में शिकायत और आरोप
चुनाव आयोग पर काफी समय से सियासी दल के नेता आरोप लगा रहे हैं। हालांकि, भारतीय चुनाव आयोग की तरफ से शिकायतों का निस्तारण कर फर्जी होने का समय- समय पर दावा किया जाता है। मगर, पिछले कुछ वर्षों में राजनीतिक दलों, नेताओं और कार्यकर्ताओं के बाद नागरिक संगठनों ने भी आरोप लगाए हैं। मगर, सत्ताधारी दल के नेता यह आरोप चुनावी लाभ लेने के लिए लगाने की बात कहते हैं। जिससे वोटरों की सहानुभूति पाई जा सके। कोई भी पार्टी चुनाव हारती है, तो उसकी निष्पक्षता पर सवाल उठाने लगती है।चुनावी प्रक्रिया को बदनाम करने के लिए कुछ समूह चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाकर लोकतंत्र में अविश्वास पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। इससे जनता में संदेह उत्पन्न होने के साथ ही चुनावी प्रक्रिया पर भरोसा कम होने लगा है। हार को छिपाने के लिए बहानेबाजी, अपनी कमजोरी और रणनीतिक विफलताओं को छिपाने के लिए चुनाव आयोग को दोषी ठहराते हैं। ईवीएम हैकिंग, वोटर लिस्ट में गड़बड़ी, धांधली जैसे आरोप बिना सबूत भी लगाने के आरोप हैं। सोशल मीडिया पर गलत सूचना फैलाना, चुनावी मौसम में सोशल मीडिया पर गलत खबरें और अफवाहें तेजी से फैलाना, कई बार फर्जी वीडियो, तस्वीर या पुराने मामले उठाकर चुनाव आयोग को बदनाम करने के भी आरोप सत्ता से जुड़े नेता लगाते हैं।
यह हैं बड़े आरोप
चुनाव आयोग पर हर चुनाव में सबसे बड़ा आरोप ईवीएम हैकिंग का लगता है। आरोप है कि ईवीएम हैक कर एक खास पार्टी को फायदा पहुंचाया जाता है। मगर,आयोग कई बार सफाई दे चुका है कि अब तक कोई तकनीकी प्रमाण नहीं मिला, जो ईवीएम हैक की जा सके। चुनाव आयोग का कहना है कि यह इंटरनेट से कनेक्ट नहीं होती। इसलिए हैकिंग बिल्कुल भी संभव नहीं। चुनाव आयोग ने कई बार वीवीपैट के जरिए सत्यापन किया और किसी धांधली के प्रमाण नहीं मिले। चुनाव आयोग पर सरकार के इशारे पर काम करने के आरोप लगते हैं, लेकिन चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संवैधानिक निकाय है, जो किसी भी सरकार के अधीन नहीं। हालांकि, दो दशक पहले कई बार सत्ताधारी दलों के खिलाफ भी कड़ी कार्रवाई हुई है। वर्ष 2019 लोकसभा चुनाव में कई बीजेपी नेताओं को आचार संहिता उल्लंघन के नोटिस दिए गए। चुनाव आयोग पर सत्ताधारी दल को फायदा पहुंचाने के लिए चुनावी तारीखें तय करने का आरोप है, जबकि चुनाव की तारीखें विभिन्न कारकों जैसे मौसम, त्योहार, बोर्ड परीक्षा, सुरक्षा व्यवस्था आदि को ध्यान में रखकर तय की जाती हैं। यह प्रक्रिया पूरी तरह से गोपनीय और तटस्थ होने की बात आयोग कहता है। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी कुछ विपक्षी दलों ने तारीखों को लेकर आरोप लगाए, लेकिन कोई ठोस प्रमाण नहीं मिले। चुनाव आयोग जानबूझकर विपक्षी दलों के समर्थकों के नाम वोटर लिस्ट से हटाने के आरोप की समीक्षा नियमित रूप से होती है और नाम हटाने की प्रक्रिया पारदर्शी होती है। किसी का नाम गलत तरीके से हटने पर फिर से जोड़ा जा सकता है। आरोप गलत हैं या सही, लेकिन इससे लोग चुनाव प्रक्रिया पर संदेह करने लगे हैं। यदि लोग चुनाव प्रक्रिया पर विश्वास खो देंगे, तो लोकतंत्र कमजोर होगा। चुनाव आयोग सोशल मीडिया पर वायरल खबरों को बिना जांचे साझा न करने की बात कहता है। इसके लिए चुनाव आयोग की वेबसाइट, प्रेस विज्ञप्ति और आधिकारिक हैंडल्स की ही जानकारी को सही मानें। गलतफहमियों को दूर करने के लिए चुनाव आयोग को सियासी दल, मीडिया और शिक्षाविदों के साथ मिलकर प्रयास करने की जरूरत हैं।
चुनाव आयोग पर कब-कब उठे सवाल
भारतीय चुनाव आयोग को आमतौर पर निष्पक्ष और स्वतंत्र संस्था माना जाता है, लेकिन कई बार इसकी निष्पक्षता पर सवाल उठे हैं। चुनाव आयोग पर आरोप लगे हैं कि उसने सत्ताधारी दल के पक्ष में काम किया या चुनाव प्रक्रिया में भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया है। लोकसभा चुनाव 2004 के दौरान केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार थी। उस वक्त चुनाव की तारीखों पर विवाद हुआ। विपक्ष ने आरोप लगाया कि चुनाव आयोग ने सत्ताधारी एनडीए सरकार (वाजपेयी सरकार) को फायदा पहुंचाने के लिए चुनाव कार्यक्रम तय किया है।हालाँकि, कोई ठोस सबूत नहीं मिले और चुनाव निष्पक्ष रूप से संपन्न हुआ। इसमें यूपीए सरकार बनी थी। 2012 में गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने आरोप लगाया कि चुनाव आयोग ने नरेंद्र मोदी (तत्कालीन मुख्यमंत्री, गुजरात) को फायदा पहुंचाने के लिए चुनाव की तारीखें देर से घोषित कीं। जिससे सरकार को अधिक समय मिल गया।चुनाव आयोग ने इन आरोपों को भी खारिज कर दिया। 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान विपक्ष ने आरोप लगाया कि चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश में बीजेपी को फायदा पहुंचाने के लिए मतदान के चरण इस तरह रखे कि प्रधानमंत्री मोदी वाराणसी में ज्यादा प्रचार कर सकें। समाजवादी पार्टी और बसपा ने इसको चुनावी धांधली का संकेत बताया था, लेकिन चुनाव आयोग ने सफाई दी कि चुनाव कार्यक्रम तटस्थ तरीके से तय किया गया। 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह पर चुनावी आचार संहिता के उल्लंघन के कई आरोप लगे थे। मगर,”मैं भी चौकीदार” और बालाकोट एयरस्ट्राइक के संदर्भ में दिए गए भाषणों पर चुनाव आयोग ने उन्हें क्लीन चिट दे दी, जबकि विपक्षी नेताओं पर कड़ी कार्रवाई का आरोप है। विपक्षी दलों (कांग्रेस, टीएमसी, सीपीएम) ने इसे चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाने वाला फैसला बताया। 2021 पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 8 चरणों में चुनाव कराने का फैसला हुआ। इसको तृणमूल कांग्रेस (TMC) ने बीजेपी के पक्ष में लिया गया निर्णय बताया था।ममता बनर्जी ने चुनाव आयोग पर बीजेपी के दबाव में काम करने का आरोप लगाया और कहा कि वोटिंग पैटर्न को प्रभावित करने के लिए चुनाव को लंबा खींचा गया। चुनाव के बाद आयोग की भूमिका को लेकर काफी बहस हुई। 2022 में यूपी और पंजाब चुनाव में निष्पक्षता पर सवाल उठे थे। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार के खिलाफ मामलों की जांच धीमी करने और चुनाव से पहले कई घोषणाओं को आचार संहिता का उल्लंघन न मानने पर सवाल उठाया गया। पंजाब में AAP और कांग्रेस ने आरोप लगाया कि केंद्रीय एजेंसियों के दबाव में चुनाव आयोग ने बीजेपी के पक्ष में फैसले लिए थे। सुप्रीम कोर्ट ने मार्च 2023 में चुनाव आयोग की नियुक्ति प्रक्रिया को सरकार-प्रधान बताते हुए सुधार की जरूरत बताई। कोर्ट ने कहा कि चुनाव आयोग को सरकार के बजाय एक स्वतंत्र पैनल द्वारा नियुक्त किया जाना चाहिए। जिससे निष्पक्षता बनी रहे। इस मुद्दे पर चुनाव आयोग की स्वायत्तता पर बहस हुई। चुनाव आयोग भारत में लोकतंत्र का संरक्षक है, लेकिन बार-बार उसकी निष्पक्षता पर सवाल उठते रहे हैं। कई बार सरकार के पक्ष में झुके होने के आरोप लगे हैं, लेकिन आयोग ने हमेशा अपनी साख बचाने की कोशिश की है।